Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती


दृष्टिकोण

(३)
एक दिन कालेज से लौटते ही रमाकान्त ने कहा-
"आज एक बड़ा विचित्र किस्सा हो गया, निर्मला !"
"क्या हुआ ? निर्मला ने उत्सुकता से पूछा ।
घृणा का भाव प्रकट करते हुए रमाकान्त बोले-
"हुआ क्या ? यही कि तुम्हारी बिट्टन को न जाने किससे गर्भ रह गया है । और अब चार-पांच महीने का है । बात खुलते ही आज वह घर से निकाल दी गई है। उसके मायके में तो कदाचित् कोई है ही नहीं । सड़क पर बैठी रो रही है।"

बिट्टन बाल-विधवा थी । वह जन्म ही की दुखिया थी, इस लिए निर्मला सदा उससे प्रेम और आदर का व्यवहार करती थी । बिट्टन की करुणा जनक अवस्था से निर्मला कातर हो उठी। उसने रमाकान्त जी से पूछा-"फिर उसका क्या होगा ? अब वह कहाँ जायगी ?"
रमाकान्त जी ने उपेक्षा से कहा "कहाँ जायगी मैं क्या जानूँ, जैसा किया है वैसा भोगेगी ।"
निर्मला के मुंह से एक ठंडी आह निकल गई। कुछ देर बाद न जाने क्या सोचकर वह दृढ़ स्वर में बोली-
"तो मैं जाती हूँ, उसे लिवा लाती हूँ; जब तक कोई दूसरा प्रबन्ध न हो जायेगा, वह मेरे साथ रही आवेगी ।"
घबरा कर रमाकान्त बोले--"नहीं नहीं, ऐसी बेवकूफ़ी करना भी मत उसे अपने घर लाकर क्या अपनी बदनामी करवानी है ? तुम्हें तो कोई कुछ न कहेगा, सब लोग मुझे ही बदनाम करेंगे।"

निर्मला ने दयाद्र भाव से कहा-अरे ! तो इतनी छोटी- छोटी सी बातों से क्यों डरते हो ? किसी की भलाई करने में भी लोग बदनाम करेंगे तो करने दो । परमात्मा तो हमारे हृदय को पहिचानेगा । मुझे तो उसकी अवस्था पर बड़ी दया आती है। तुम कहो तो मैं अभी जाकर उसे लिवालाऊँ।

रमाकान्त के कुछ बोलने के पहले ही उनकी माँ बोल उठीं-"ऐसी औरतों का तो इसे बड़ा दर्द होता है। घर में बुलाने जा रही है । जाय कहीं भी मुँह काला करे । पर याद रखना, खबरदार ! जो, उसे घर में बुलाया तो ? मैं अभी से कहे देती हूँ। अगर उस छूत ने घर में पैर भी रक्खा तो अच्छा न होगा ।"

निर्मला धीरे से बोली-"अगर वह आ ही गई तो फिर क्या करोगी, अम्मा जी ?"
अम्मा जी क्रोध से तिलमिला सी उठीं तड़प कर बोली-"मार के लकड़ी पैर तोड़ दूँगी, और क्या करूंगी ? तू तो रामू के सिर चढ़ाने से इतनी बढ़ चढ़ के बोल रही है सो मैं रामू से डरती नहीं । तेरा और तेरे साथ रामू का भी मिजाज ठंडा कर दूँगी । ऐसी बज्ज़ात औरतों की परछाईं में भी रहना पाप है, उसे घर में बुलाने जा रही है ।"

निर्मला ने कहा--"पर अम्मा जी यदि वह आई तो मैं दूसरों की तरह उसे दरवाजे पर से दुतकार तो न दूँगी। मैं यह तो कहती ही नहीं कि उसे सदा ही अपने घर में रखा जाय; पर हाँ, जब तक उसका कोई प्रबन्ध न हो जाय तब तक अगर वह घर के एक कोने में पड़ी रही तो कोई हानि तो न होगी ! और कौन वह हमारे चूल्हे चौके में जायगी ? आखिर बिचारी स्त्री ही तो है। भूलें किससे नहीं होतीं ?"

अम्मा जी क्रोध में आकर बोलीं- "एक बार कह दिया कि उस राँड को घर में न घुसने दूँगी। बार बार ज़बान चलाए ही जा रही है। वह तो अपनी कोई नहीं है। कोई अपनी सगी भी ऐसा करती तो मैं लात मार कर निकाल देती । अब बार बार पूँछ कर मेरे गुस्से को न बढ़ा, नहीं तो अच्छा न होगा।"

निर्मला ने नम्रता से कहा-"पर तुम्हारा क्या बिगाड़ेगी, अम्मा जी ? मेरे कमरे में पड़ी रहेगी और तुम चाहो तो ऐसा प्रबन्ध कर दूँ कि तुम्हें उसकी सूरत भी न दिखे। और फिर अभी से उस पर इतनी बहस ही क्यों ? वह तो तब की बात है जब वह इमसे आश्रय माँगने आवे ।"

अम्मा जी का क्रोध बढ़ा और वे कहने लगीं--"तेरे कमरे में रहेंगी और मुझे उसकी सुरत न दिखे। तो क्या दूसरी बात हो जायगी । कैसी उलटफेर के बात कहती है! तुझे अपने पढ़ने लिखने का घमंड हो तो उस घमंड में न भूली रहना । ऐसी पढ़ी-लिखियों को मैं कौड़ी के मोल के बराबर भी नहीं समझती । धर्म-कर्म से तो सदा सौ गज दूर, और ऐसी कुजात औरतों पर दया करके चली है धर्म कमाने । वाह री औरत ! जिसे मुहल्ले भर में किसी ने अपने घर न रक्खा; उसे यह अपने घर में रखेगी । तू ही तो दुनिया भर में अनोखी है न ? सब दूसरों को दिखाने के लिए कि बड़ी दयावन्ती है ? जो भीतर का हाल न जाने उसके सामने इतनी बन । घर वालों को तो काटने दौड़ेगी और बाहर वालों को गले लगाती फिरेगी।"

निर्मला भी ज़रा तेज़ होकर बोली-"तो अम्मा जी मुझे इतनी खरी-खोटी क्यों...............?" बीच ही में निर्मला को डाँट कर चुप कराते हुए रमाकान्त बोले- "तो तुम चुप न रहोगी निर्मला ? कब से सुन रहा हूँ कि ज़बान कैसी कैंची की तरह चल रही है । तुम्हारे हृदय में बिट्टन के लिए बड़ी दया है, और तुम उसके लिए मरी जाती हो; तो जाओ उसे लेकर किसी धर्मशाले में रहो । मेरे घर में तो उसके लिए जगह नहीं है।"

निर्मला को भी अब क्रोध आ चुका था; उसने भी उसी प्रकार तेज़ स्वर में कहा-"तो क्या इस घर में मेरा इतना भी अधिकार नहीं है कि यदि मैं चाहूँ तो किसी को एक दो दिन के लिए भी ठहरा सकूँ ? अभी उस दिन, तुम लोगों ने बाबू राधेलाल जी का इतना आदर सम्मान क्यों किया था ? उनके चरित्र के बारे में कौन नहीं जानता ? उनके घर ही में तो वेश्या रहती है; सो भी मुसलमानिनी और वह उसके हाथ का खाते-पीते भी हैं। फिर विचारी बिट्टन ने क्या इससे भी ज्यादा कुछ अपराध किया है ?"

अम्मा जी गरज उठीं अब उनका साहस और बढ़ गया था; क्योंकि अभी-अभी रमाकान्त जी निर्मला को डांट चुके थे। वे बोलीं-"चुप रह नहीं तो जीभ पकड़ कर खींच लूँगी । बड़ी बिट्टन वाली बनी है। विचारी बिट्टन, विचारी बिट्टन । तू भी बिट्टन सरीखी होगी, तभी तो उसके लिए मरी जाती है, न ? जो सती होती हैं वे तो ऐसी औरतों की परछांईं भी नहीं छूतीं । और तू राधेलाल के लिए क्या कहा करती है वह, वह तो फूल पर का भंवरा है। आदमी की जात है, उसे सब शोभा देता है, एक नहीं बीस औरतें रख ले । पर औरत आदमी की बराबरी कैसे कर सकती है ?"

निर्मला ने सतेज और दृढ़ स्वर में कहा-"बस अम्मा जी अब मैं ज्यादः न सुन सकूँगी। मैं बिट्टन सरीखी होऊँ या उससे भी बुरी किन्तु इस समय वह निराश्रिता है, कष्ट में है, मनुष्यता के नाते मैं उसे आश्रय देना अपना धर्म समझती हूँ और दूंगी।"
अब रमाकान्त जी को बहुत क्रोध आ गया था, वे कमरे से निकल कर आंगन में आ गये और आग्नेय नेत्रों से निर्मला की ओर देखते हुए बोले-क्या कहा ? तुम बिट्टन को इस घर में आश्रय दोगी ?

निर्मला भी दृढ़ता से-बोली—जी हाँ, जितना इस घर में आपका अधिकार है, उतना ही मेरा भी है। यदि आप अपने किसी चरित्रहीन पुरुष मित्र को आदर और सम्मान के साथ ठहरा सकते हैं; तो मैं भी किसी असहाय अबला को कम से कम, आश्रय तो दे ही सकती हूँ ।
रमाकान्त निर्मला के और भी नज़दीक जाकर कठोर स्वर में बोले--मेरी इच्छा के विरुद्ध तुम यहाँ उसे आश्रय दोगी?
निर्मला ने भी उसी स्वर में उत्तर दिया—जी हाँ, मेरी इच्छा का भी तो कोई मूल्य होना चाहिए; या मेरी इच्छा सदा ही आपकी इच्छा के सामने कुचली जाया करेगी।

अब रमाकान्त जी अपने क्रोध को न सम्हाल सके और पत्नी के मुंह पर तीन-चार तमाचे तड़ातड़ जड़ दिए । निर्मला की ज़बान बन्द हो गई। बाबू रमाकान्त क्रोध और ग्लानि के मारे कमरे में जाकर अन्दर से साँकल लगा कर सो रहे । अम्मा जी दरवाज़े पर रखवाली के लिए बैठ गई कि कहीं बिट्टन किसी दरवाज़े से भीतर न आ जाय ।

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